विकास की अवधारणा
'विकास की अवधारणा विकास की प्रक्रिया एक अविरल, क्रमिक तथा सतत् प्रक्रिया होती है। विकास की प्रक्रिया में बालक का शारीरिक, क्रियात्मक, संज्ञानात्मक, भाषागत, संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है। विकास की प्रक्रिया में रुचियों, आदतों, दृष्टिकोणों, जीवन-मूल्यों, स्वभाव, व्यक्तित्व, व्यवहार इत्यादि का विकास भी शामिल है।
बाल विकास का तात्पर्य है-
बालक के विकास की प्रक्रिया बालक के विकास की प्रक्रिया उसके जन्म से पूर्व गर्भ में ही प्रारम्भ हो जाती है। विकास की इस प्रक्रिया में वह गर्भावस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था इत्यादि कई अवस्थाओं से गुजरते हुए परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करता है।
जन्म लेने से पूर्व एवं जन्म लेने के बाद परिपक्व होने तक बालक में किस प्रकार के परिवर्तन होते है।
बालक में होने वाले परिवर्तनों का विशेष आयु के साथ क्या सम्बन्ध
उपरोक्त परिवर्तन उसके व्यवहार को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं?
पिछले परिवर्तनों के आधार पर बालक में भविष्य में होने वाले गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तनों की भविष्यवाणी की जा सकती है?
व्यक्तिगत विभिन्नताओं के लिए किस प्रकार के आनुवंशिक एवं परिवेशजन्य प्रभाव उत्तरदायी होते हैं?
बालक के गर्भ में आने के बाद निरन्तर प्रगति का विभिन्न आयु तथा अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है?
मानव विकास की अवस्थाएँ
मानव विकास एक सतत् प्रक्रिया है। शारीरिक विकास तो एक सीमा (परिपक्वता प्राप्त करने) के बाद रुक जाता है, किन्तु मनोशारीरिक क्रियाओं में विकास निरन्तर होता रहता है। दिन मनोशारीरिक क्रियाओं के अन्तर्गत मानसिक, भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक एवं चारित्रिक विकास आते है। इनका विकास विभिन्न आयु स्तरों में भिन्न भिन्न प्रकार से होता है। इन आयु स्तरों को मानव विकास की अवस्थाएँ कहते हैं।
भारतीय मनीषियों ने मानव विकास की अवस्थाओं को सात कालो में विभाजित किया है
1. गर्भावस्था गर्भाधान से जन्म तक।
2. शैशवावस्था जन्म से 5 वर्ष तक।
3. बाल्यावस्था 5 वर्ष से 12 वर्ष तक।
4. किशोरावस्था 12 वर्ष से 18 वर्ष तक।
5. युवावस्था 18 वर्ष से 25 वर्ष तक।
6. प्रौढ़ावस्था 25 वर्ष से 55 वर्ष तक।
7. वृद्धावस्था 55 वर्ष से मृत्यु तक
अधिकतर विद्वान् मानव विकास का अध्ययन निम्नलिखित चार अवस्थाओं के अन्तर्गत करते हैं
1. शैशवावस्था जन्म से 6 वर्ष तक।
2. बाल्यावस्था 6 वर्ष से 12 वर्ष तक।
3. किशोरावस्था 12 वर्ष से 18 वर्ष तक।
4.वयस्कावस्था 18 वर्ष से मृत्यु तक।
शिक्षा मनोविज्ञान में इन्हीं तीन अवस्थाओं में होने वाले मानव विकास का अध्ययन किया जाता है।
शैशवावस्था
जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। इसमें जन्म से 3 वर्ष तक बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तेजी से होता है। शैशवावस्था में अनुकरण एवं दोहराने की तीव्र प्रवृत्ति बच्चों में पाई जाती है। इसी काल में बच्चों का समाजीकरण भी प्रारम्भ हो जाता है। इस काल में जिज्ञासा की तीव्र प्रवृत्ति बच्चों में पाई जाती है। मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से यह काल भाषा सीखने की सर्वोत्तम अवस्था है। इन्हीं सब कारणों से यह काल शिक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
• बाल्यावस्था
6 वर्ष से 12 वर्ष तक की अवस्था को बाल्यावस्था कहा जाता है। बाल्यावस्था के प्रथम चरण 6 से 9 वर्ष में बालकों की लम्बाई एवं भार दोनों बढ़ते हैं। इस काल में बच्चों में चिन्तन एवं तर्क शक्तियों का विकास हो जाता है। इस काल के बाद से बच्चे पढ़ाई में रुचि लेने लगते हैं। शैशवावस्था में बच्चे जहाँ बहुत तीव्र गति से सीखते हैं वहीं बाल्यावस्था में सीखने की गति मन्द हो जाती है, किन्तु उनके सीखने का क्षेत्र शैशवावस्था की तुलना में विस्तृत हो जाता है।
किशोरावस्था
12 वर्ष से 18 वर्ष तक की अवस्था को किशोरावस्था कहा जाता है। यह वह समय होता है इस अवस्था में किशोरों की लम्बाई एवं भार दोनों में वृद्धि होती है, साथ ही मांसपेशियों में भी वृद्धि होती है। 12-14 वर्ष की आयु के बीच लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की लम्बाई एवं मांसपेशियों में तेजी से वृद्धि होती है 14-18 वर्ष की आयु के बीच लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की लम्बाई एवं मांसपेशियाँ तेजी से बढ़ती हैं। इस काल में प्रजनन अंग विकसित होने लगते हैं
विकास को प्रभावित करने वाले कारक
विकास पर माँ-बाप, घर का वातावरण, अड़ोस-पड़ोस, बाहर का वातावरण, सीखने, परिपक्वता तथा आनुवंशिक कारकों का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। ये सभी बातें बच्चे के विकास पर प्रत्यक्ष रूप से अपनी छाप छोड़ती हैं।
विकास के विभिन्न आयाम
बाल-विकास को वैसे तो कई आयामों में विभाजित किया जा सकता है, किन्तु बाल-विकास एवं बाल मनोविज्ञान के अध्ययन के दृष्टिकोण से इसके निम्नलिखित आयाम महत्त्वपूर्ण हैं
शारीरिक विकास
इसके अन्तर्गत बालक के शरीर के बाह्य एवं आन्तरिक अवयवों का विकास शामिल है। आन्तरिक अवयवों के परिवर्तन बाह्य रूप से दिखाई तो नहीं पड़ते, किन्तु शरीर के भीतर इनका समुचित विकास होता रहता है।
शारीरिक वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया व्यक्तित्व के उचित समायोजन और विकास के मार्ग में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रारम्भ में शिशु अपने हर प्रकार के कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, धीरे-धीरे विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होता जाता है।
शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर बालक के आनुवंशिक गुणों का प्रभाव देखा जा सकता है।
मानसिक विकास
मानसिक विकास से तात्पर्य बालक की उन सभी मानसिक योग्यताओं एवं क्षमताओं में वृद्धि और विकास से है
कल्पना करना, स्मरण करना, विचार करना, निरीक्षण करना, समस्या समाधान करना, निर्णय लेना, इत्यादि की योग्यता संज्ञानात्मक विकास के फलस्वरूप ही विकसित होते हैं। जन्म के समय बालक में इस प्रकार की योग्यता का अभाव होता है, धीरे-धीरे आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें मानसिक विकास की गति भी बढ़ती रहती है।
संज्ञानात्मक विकास
शिक्षकों को संज्ञानात्मक विकास की पर्याप्त जानकारी इसलिए होनी चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में वह बालकों की इससे सम्बन्धित समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएगा। यदि कोई बालक मानसिक रूप से कमजोर है, तो इसके क्या कारण हैं, यह जानना उसके उपचार के लिए आवश्यक है।
संज्ञानात्मक विकास के बारे में पर्याप्त जानकारी होने से विभिन्न आयु स्तरों पर पाठ्यक्रम, सहगामी क्रियाओं तथा अनुभवों के चयन और नियोजन में सहायता मिलती है। किस विधि और तरीके से पढ़ाया जाए, सहायक सामग्री तथा शिक्षण साधन का प्रयोग किस तरह किया जाए, शैक्षणिक वातावरण किस प्रकार का हो, इन सबके निर्धारण में संज्ञानात्मक विकास के विभिन्न पहलुओं की जानकारी शिक्षकों के लिए सहायक साबित होती है।
भाषायी विकास
भाषा का विकास एक प्रकार का संज्ञानात्मक विकास ही है। मानसिक योग्यता की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भाषा का तात्पर्य होता है सांकेतिक साधन, जिसके माध्यम से बालक अपने विचारों एवं भावों क सम्प्रेषण करता है तथा दूसरों के विचारों एवं भावों को समझता है।
भाषायी योग्यता के अन्तर्गत मौखिक अभिव्यक्ति, सांकेतिक अभिव्यक्ति लिखित अभिव्यक्ति शामिल हैं। भाषायी योग्यता एक कौशल है, जिसे अर्जित किया जाता है। इस कौशल को अर्जित करने की प्रक्रिया बालक जन्म के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है।
जन्म से लेकर आठ माह तक बालक को किसी शब्द की जानकारी नहीं होती। 9 माह से 12 माह के बीच वह तीन या चार शब्दों को समझने लगता है। डेढ़ वर्ष के भीतर उसे 10 से 12 शब्दों की जानकारी हो जाते है। 2 वर्ष की आयु तक उसे दो सौ से अधिक शब्दों की जानकारी हो जाती है। 3 वर्ष के भीतर ही बालक लगभग एक हजार शब्दों को समझने लगता है। इसी तरह उसमें भाषायी विकास होते रहते हैं और 16 वर्ष की आयु तक बालक लगभग एक लाख शब्दों को समझने की योग्यता विकसित कर लेता है।
भाषायी विकास की प्रक्रिया में लिखने एवं पढ़ने का भी ज्ञान उसमें धीरे-धीरे ही होता है। बाल्यावस्था में वह धीरे-धीरे एक-एक शब्द को पढ़ता एवं लिखता है
शिक्षकों को भाषा के विकास की प्रक्रिया का सही ज्ञान होना इसलिए अनिवार्य है, क्योंकि इसी के आधार पर बालक की भाषा से सम्बन्धित समस्याएँ; जैसे-अस्पष्ट उच्चारण, गलत उच्चारण, तुतलाना, हकलाना, तीव्र अस्पष्ट वाणी इत्यादि का समाधान कर सकता
सामाजिक विकास
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं। बालक में सामाजिक भावनाओं का विकास जन्म के बाद ही शुरू होता है। वृद्धि एवं विकास के अन्य पहलुओं की तरह ही सामाजिक गुण भी बच्चे में धीरे-धीरे पनपते हैं।
सामाजिक वृद्धि एवं विकास का अर्थ होता है अपने साथ एवं दूसरों के साथ भली-भाँति समायोजन करने की योग्यता।
शारीरिक ढाँचा, स्वास्थ्य, बुद्धि, संवेगात्मक विकास, परिवार, पारिवारिक वातावरण, सामाजिक वातावरण, इत्यादि व्यक्ति के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं। शिक्षा के कई उद्देश्यों में एक बालक का सामाजिक विकास भी होता है।
सांवेगिक विकास
संवेग जिसे भाव भी कहा जाता है का अर्थ होता है ऐसी अवस्था जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती है। भय, क्रोध, घृणा, आश्चर्य, स्नेह, विषाद, इत्यादि संवेग के उदाहरण हैं। बालक में आयु बढ़ने के साथ ही इन संवेगों का विकास भी होता रहता है।
संवेगात्मक विकास मानव वृद्धि एवं विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। व्यक्ति का संवेगात्मक व्यवहार उसके शारीरिक वृद्धि एवं विकास को ही प्रभावित होते रहते हैं नहीं, बल्कि बौद्धिक, सामाजिक एवं नैतिक विकास को भी प्रभावित करता है।
मनोगत्यात्मक विकास
क्रियात्मक विकास का अर्थ होता है व्यक्ति की क्रियात्मक शक्तियों, क्षमताओं या योग्यताओं का विकास क्रियात्मक शक्तियाँ, क्षमताएँ या योग्यताओं का अर्थ होता है ऐसी शारीरिक गतिविधियाँ या क्रियाएँ जिनको सम्पन्न करने के लिए व्यवहार में मांसपेशियों एवं तन्त्रिकाओं की गतिविधियों के संयोजन की आवश्यकता होती है; जैसे- चलना, बैठना, इत्यादि। एक नवजात शिशु ऐसे कार्य करने में अक्षम होता है
क्रियात्मक विकास
क्रियात्मक विकास के स्वरूप एवं उसकी प्रक्रिया का ज्ञान होना शिक्षकों के लिए आवश्यक है। इसी ज्ञान के आधार पर ही वह बालक में विभिन्न कौशलों का विकास करवाने में सहायक हो सकता है।
"क्रियात्मक विकास के ज्ञान से शिक्षकों को यह भी पता चलता है
"क्रियात्मक विकास के ज्ञान से शिक्षकों को यह भी पता चलता है कि किस आयु विशेष या अवस्था में बालक में किस प्रकार के कौशलो की योग्यता अर्जित करने की योग्यता होती है। जिन बालकों में क्रियात्मक विकास सामान्य से कम होता है, उनके समायोजन एवं विकास हेतु विशेष कार्य करने को आवश्यकता होती है।
वृद्धि एवं विकास में अन्तर
वृद्धि एवं विकास का प्रयोग लोग प्राय: पर्यायवाची शब्दों के रूप में करते हैं। अवधारणात्मक रूप से देखा जाए, तो इन दोनों में अन्तर होता है। इस अन्तर को हम अग्र प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं
वृद्धि
1. वृद्धि शब्द का प्रयोग परिमाणात्मक परिवर्तनों; जैसे बच्चे के बड़े होने के साथ उसके आकार, लम्बाई, ऊँचाई, इत्यादि के लिए होता है।
2. वृद्धि विकास की प्रक्रिया का एक चरण होता है। इसका क्षेत्र सीमित होता है।
3. वृद्धि की क्रिया आजीवन नहीं चलती, बालक के परिपक्व होने के साथ ही यह रुक जाती है।
4. बालक की शारीरिक वृद्धि हो रही है इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि उसमें विकास भी हो रहा है।
विकास
1.विकास शब्द का प्रयोग परिमाणात्मक परिवर्तनों के साथ-साथ व्यावहारिक परिवर्तनों, जैसे- कार्यकुशलता, कार्यक्षमता, व्यवहार में सुधार इत्यादि के लिए भी होता है।
2.विकास अपने आप में एक विस्तृत अर्थ रखता है। वृद्धि इसका एक भाग होता है।
3.विकास एक सतत् प्रक्रिया है। बालक के परिपक्व होने के बाद भी यह चलती रहती है।
4. बालक में विकास के लिए भी वृद्धि आवश्यक नहीं है।
अधिगम
अधिगम का अर्थ है अपने अनुभव के अनुसार अपने भविष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाना अर्थात् अपने आपको बदल लेना।
अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम से अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं
गेट्स (Gates) के अनुसार, "अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है।"
ई. ए. पील (E.A. Peel) के • अनुसार, “अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।"
बाल विकास का अधिगम से सम्बन्ध
बालकों का विकास एवं अधिगम एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसके साथ बालकों में उन सिद्धान्तों का भी विकास होता है, जो बच्चे प्राकृतिक व सामाजिक दुनिया के बारे में बनाते हैं।
अर्थ निकालना, अमूर्त सोच (abstract thought) की क्षमता विकसित करना, विवेचना व कार्य, अधिगम की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
दृष्टिकोण, भावनाएँ और आदर्श, संज्ञानात्मक विकास के अभिन्न हिस्सेहैं और भाषा विकास, मानसिक चित्रण, अवधारणाओं व तार्किकता सेइनका गहरा सम्बन्ध है।
Written By :- Himanshu Sharma
External Support :- Ritilk Rathor